ABC NEWS: दुष्यंत कुमार की पंक्तियां ”कौन कहता है कि आसमान में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछाला यारों” को सही साबित कर दिखाया है. यूपी के कानपुर में शिवराजपुर के करीब एक गांव पाठकपुर में रहने वाली कंचन दीक्षित ने। गांव के परिषदीय प्राथमिक विद्यालय से पढ़ाई का सफर शुरू करने वाली कंचन आज सॉफ्टवेयर इंजीनियर बन गई हैं. इस बेटी ने छप्पर के नीचे रहकर अपनी पढ़ाई पूरी की.
कानपुर की कंचन की दास्तां हर ऐसे मेधावी के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है जो संसाधनों के अभाव में थक-हार कर बैठ जाते हैं. कंचन एक बेहद गरीब परिवार में जन्मीं. पढ़ाई का शौक था तो परिषदीय विद्यालय में प्रवेश करा दिया गया. फिर सरकारी स्कूलों में पढ़ीं। 80 फीसदी अंकों के साथ 10वीं, 72 फीसदी के साथ 12वीं की परीक्षा पास की. कंचन कहती हैं कि सरकारी स्कूल के शिक्षक योग्य होते हैं. बस उनसे पढ़ने को कोई तैयार हो.
सपना टूटते दिखा फिर भी हार नहीं मानी
कंचन बताती हैं कि परिवार आर्थिक तंगी से जूझ रहा था और मैं सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनना चाहती थी. गरीबी के कारण एक इंस्टीट्यूट ने कई बार लौटा दिया. हिम्मत फिर भी नहीं हारी। किसी ने अमित सर का नाम बताया. उनके सहारे विजय कुमार सर से मिली. मेरी आंखों में आंसू देख उन्होंने कंप्यूटर साइंस ब्रांच में मेरा प्रवेश करा दिया. फिर एक पिता की तरह देखभाल की. पूरी पढ़ाई कराई। फिर आज तक एक पैसा खर्च नहीं हुआ.
पहली सैलरी शिक्षक को भेजी, गीता खरीदी
कंचन बताती हैं कि अंतिम वर्ष में ही लाखों के पैकेज पर सॉफ्टवेयर इंजीनियर की नौकरी मिल गई. पेड इंटर्नशिप मिली. गुरु जी ने पूरा खर्च उठाकर पिता संजय कुमार दीक्षित के साथ इंटर्नशिप व नौकरी के लिए हैदराबाद भेजा. पढ़ाई में मां नीलम दीक्षित का बड़ा रोल रहा. मुझे जब पहली सैलरी मिली तो हरे कृष्णा गोल्डन टेंपल जाकर गीता व चैंटिंग माला खरीदी. सैलरी शिक्षक को भेजी। उन्होंने आशीर्वाद देते हुए सैलरी लौटा दी. इस सैलरी से मैं सबसे पहले शिवराजपुर के किराए के मकान का छप्पर ठीक कराऊंगी. पानी बरसने पर रहना मुश्किल होता है। आज मैं गुरुजनों के आशीर्वाद से सफल हो सकी हूं. अब मैं भी विवेकानंद समिति में पढ़ रहे अपने जैसे गरीब बच्चों की हर तरह से मदद करूंगी.