ABC News : ( पूजा वर्मा ) हम सभी ने अक्सर सुना होगा कि अपराधिक मामलों की जांच में जब पुलिस या सुरक्षा जांच एजेंसी से जानकारी हासिल करने में असफल होती है तब नार्को टेस्ट का सहारा लिया जाता है. इसे नार्को एनालिसिस (Narco Analysis) के नाम से भी जाना जाता है. इस टेस्ट की वैधानिकता पर हमेशा से सवाल उठते आ रहे हैं, लेकिन पुलिस और अन्य सुरक्षा एजेंसियां शातिर अपराधियों से सच जानने और साक्ष्य जुटाने के लिए नार्को एनालिसिस टेस्ट का सहारा लेना पड़ता है.
यह टेस्ट अपराधिक जांच को आसान और सरल बनाने के लिए किया जाता है. लेकिन इस टेस्ट से पहले जाँच एजेंसियों को कई तरह के अप्रूवल लेने पड़ते हैं. जिस भी मुजरिम से पूछताछ करनी होती है पहले उसकी उम्र और हेल्थ को देखा जाता है उसके बाद तय होता है, की उसके अनुसार उसपर कौन से Chemical का प्रयोग होगा उसको कौन -सा इंजेक्शन दिया जाएगा. इससे पहले उसके शरीर को दो मशीनों से जोड़ दिया जाता है. ये किसी भी आपराधिक मामलों में सच तक पहुँचने का एक प्रयास होता है. ये प्रक्रिया करीब 60 मिनट तक की होती है.
क्या होता है नार्को टेस्ट?
नार्को विशलेषण शब्द नार्क से लिया गया है, जिसका अर्थ है नार्कोटिक. हॉर्सले ने पहली बार नार्को शब्द का प्रयोग किया था. 1922 में नार्को एनालिसिस शब्द मुख्यधारा में आया जब 1922 में रॉबर्ट हाऊस, टेक्सास में एक ऑब्सेट्रेशियन ने स्कोपोलेमाइन ड्रग का प्रयोग दो कैदियों पर किया था.
इस टेस्ट की श्रेणी में पॉलीग्राफ और ब्रेन मैपिंग टेस्ट भी आते हैं. अपराधियों से अपराध से जुड़े सबूत और जानकारी निकालने के लिए अक्सर नार्को टेस्ट की मदद ली जाती है. नार्को टेस्ट एक डिसेप्शन डिटेक्शन टेस्ट होता है और इस टेस्ट में व्यक्ति को हिप्नोटिज्म की स्थिति में ले जाकर फिर उस व्यक्ति से अपराध के बारे में पूछताछ की जाती है. इस टेस्ट में कुछ ड्रग्स का भी इस्तेमाल किया जाता है जिसके जरिए व्यक्ति के चेतन मन को कमजोर करके उसे सम्मोहित करने की कोशिश होती है इस टेस्ट में आरोपी को सबसे पहले नसों में इंजेक्शन के द्वारा एनेस्थीसिया दिया जाता है, और इसके बाद उससे पूछताछ की शुरुआत की जाती है. मुजरिम को इसमें इथेनॉल, सोडियम पेंटाथॉल, बार्बीचुरेट्स, आदि Chemical ड्रग्स के इंजेक्शन दिए जाते हैं, कुछ लोग इसको ट्रुथ ड्रग्स भी कहते हैं क्योंकि यह दवाई इंसान को आधा बेहोश कर देती है, जिससे फिर वो इंसान सेमी कॉन्सियस स्थिति में चला जाता है मतलब ना तो वह पूरी तरह से बेहोश होता है और न ही पूरा होश में रहता है और जब भी की इंसान इस प्रकार की आधी बेहोशी की हालत में होते हैं तो हम चाह कर भी झूठ नहीं बोल पाते है.
क कैसे होता है पॉलीग्राफ और ब्रेन मैपिंग टेस्ट ?
पॉलीग्राफ मशीन: जब किसी मुजरिम का नार्को टेस्ट किया जाता है तब पॉलीग्राफ मशीन उसका ब्लड प्रेशर, पल्स, ब्रीथ स्पीड, हार्ट रेट
और उसके शरीर में होने वाली सभी हरकतों को रिकॉर्ड करता है फिर मुजरिम से कुछ आम सवाल पूछे जाते हैं जिनमें वह झूठ नहीं बोल पाता, जैसे उसका नाम, उसके माता पिता का नाम, उसके घर का एड्रेस, वह क्या काम करता है आदि फिर धीरे-धीरे उससे अपराध के संबंध में सवाल पूछे जाते है.
ब्रेन मैंपिंग टेस्ट: इसका Invention अमेरिकी न्यूरोलॉजिस्ट डॉ लारेंस ए फारवेल ने 1962 में कोलंबस स्टेट अस्पताल किया था. और आज इस टेस्ट का बहुत सी जगहों पर प्रयोग किया जाता है यह एक ऐसा टेस्ट है जिसमे संदिग्ध व्यक्ति को कंप्यूटर से जुड़ा एक हेलमेट पहनाया जाता है जिसमें सेंसर लगे होते हैं और ये सेंसर दिमाग में होने वाली सारी हलचल को रिकॉर्ड करता है और उस हलचल को स्क्रीन पर दिखाता है.
किन लोगों की देखरेख में होता है नार्को टेस्ट?
नार्को टेस्ट करने के लिए विशेषज्ञों की टीम तैनात की जाती है. इस टीम की देखरेख में ही सुरक्षा एजेंसियां जांच करती हैं. नार्को टेस्ट करने वाली टीम में साइकोलॉजिस्ट, एनेस्थिसियोलॉजिस्ट, टेक्नीशियन और मेडिकल स्टाफ शामिल होते हैं. जिस आरोपी का नार्को टेस्ट करना होता है पहले उसका फिटनेस टेस्ट किया जाता है और फिर इस टेस्ट में पास होने के बाद ही आरोपी को नार्को टेस्ट के लिए ले जाया जाता है. टेस्ट की स्थिति को देखने के लिए तमाम तरह के मॉनिटर आदि का इस्तेमाल किया जाता है.
विशेषज्ञों की मानें तो नार्को टेस्ट खुद में कोई सबूत नहीं हैं दवा के प्रभाव से कुछ बातें बाहर आ जाती है फिर उसके आधार पर सबूत जुटाए जाते है और जाँच की जाती है. इस पूरी प्रक्रिया की वीडियोग्राफी होती है लेकिन इसे लाइव नही दिखाया जाता है.
नार्को टेस्ट सिर्फ सरकार द्वारा प्रामाणित सरकारी संस्थाओं और विशेषज्ञों की देखरेख में ही किया जाता है, जिसके लिए न्यायालय का अनुमति प्रमाण पत्र आवश्यक होता है। इसलिए कोई भी सामान्य व्यक्ति या संस्था इस टेस्ट को नहीं करवा सकती।