भगवान कृष्ण ने ऐसे तोड़ा अपने तीन परम प्रिय भक्तों का अहंकार, जाने रोचक पौराणिक कथा

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ABC NEWS: कहते हैं कि अगर इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन अगर कोई है तो वो उसका खुद का अपना अहंकार ही है. जिस इंसान में जितना ज्यादा अहंकार होता है वो ईश्वर से उतना ही दूर माना जाता है. इसलिए अपने भक्तों के कल्याण के लिए स्वयं भगवान ही लीला रचकर उनके अहंकार का नाश करते हैं. इसी विषय पर एक रोचक पौराणिक कथा है, आइए जानते हैं.

एक बार भगवान श्रीकृष्ण अपनी द्वारका नगरी में रानी सत्यभामा के साथ सिंहासन पर विराजमान थे, उनके साथ ही गरुड़ और सुदर्शन चक्र भी बैठे हुए थे. तब बातों ही बातों में रानी सत्यभामा ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा कि हे प्रभु! त्रेतायुग में आपने राम के रूप में अवतार लिया था, तब सीता आपकी पत्नी थीं, क्या सीता मुझसे भी ज्यादा खूबसूरत थीं?

भगवान श्रीकृष्ण तुरंत ही इस बात को समझ गए कि रानी सत्यभामा को अपने रूप रंग का अहंकार हो गया है. रानी सत्यभामा के ये बात पूछने के तुरंत बाद ही पक्षीराज गरुड़ भी भगवान श्रीकृष्ण से पूछ बैठे कि क्या इस दुनिया में कोई ऐसा मौजूद है जो मुझसे भी तेज उड़ सकता है? इधर सुदर्शन चक्र भी खुद को महान मानते हुए पूछ बैठे, “हे प्रभु! क्या कोई मुझसे भी ज्यादा शक्तिशाली है? मेरे द्वारा ही आपने बड़े-बड़े युद्धों में विजय पाई है?”

अपने तीनों प्रिय भक्तों के अहंकार युक्त पूछे गए प्रश्नों से भगवान श्रीकृष्ण मन ही मन में मुस्कुराने लगे, क्योंकि वे जान गए थे कि उनके तीनों ही प्रिय भक्त अहंकार से पीड़ित हो गए हैं. अहंकार मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु माना जाता है और भगवान तो हमेशा ही अपने भक्तों का कल्याण करते आए हैं इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने अपने तीनों भक्तों के अहम को तोड़ने के लिए एक लीला रची.

श्रीकृष्ण ने पक्षीराज गरुड़ से कहा कि हे गरुड़! तुम हनुमान जी के पास जाओ और उनसे कहना कि द्वारका में भगवान राम, माता सीता के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं. पक्षीराज गरुड़ भगवान की आज्ञा से हनुमान जी को लेने निकल पड़े. इधर भगवान श्रीकृष्ण ने सत्यभामा से कहा कि हे देवी! आप सीता के रूप में तैयार हो जाइए और स्वयं द्वारकाधीश भगवान श्रीकृष्ण ने राम का रूप धारण कर लिया. अब श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र को आज्ञा देते हुए कहा कि तुम महल के प्रवेश द्वार पर पहरा दो और ध्यान रखना कि कोई भी मेरी आज्ञा के बिना महल में कोई प्रवेश न कर पाए.

भगवान की आज्ञा पाकर सुदर्शन चक्र महल के प्रवेश द्वार पर तैनात हो गए. पक्षीराज गरुड़ ने हनुमान जी के पास पहुंचकर कहा कि हे वानर श्रेष्ठ! भगवान राम, माता सीता के साथ द्वारका में आपसे मिलने के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं. इसलिए आप मेरे साथ चलें, मैं आपको अपनी पीठ पर बैठाकर जल्दी ही आपको वहां पहुंचा दूंगा.

हनुमान ने विनयपूर्वक गरुड़ जी से कहा, आप चलिए, मैं भी आता हूं. पक्षीराज गरुड़ ने सोचा, पता नहीं यह बूढ़ा दिखने वाला वानर कब तक पहुंचेगा? खैर मुझे द्वारका भगवान श्रीकृष्ण के पास चलना चाहिए. ऐसा सोचकर पक्षीराज गरुड़ तेज गति से द्वारका की ओर उड़े चले. महल में पहुंचकर पक्षीराज गरुड़ देखते हैं कि हनुमान जी तो उनसे पहले ही महल में प्रभु के सामने बैठे हैं. तब गरुड़ जी अहम टूटा और लज्जा से उसका सिर झुक गया.

तभी श्रीराम ने हनुमान जी से कहा कि पवन पुत्र! तुम बिना आज्ञा लिए महल में कैसे प्रवेश कर गए? क्या तुमको किसी ने प्रवेश द्वार पर रोका नहीं? हनुमान ने कहा कि हे प्रभु! आपसे मिलने से मुझे इस चक्र ने रोका था इसलिए मैंने इसे मुंह में रख लिया और मैं आपसे मिलने आ गया, मुझे क्षमा करें. तब हनुमान जी ने हाथ जोड़ते हुए सिर झुकाकर अपने मुंह से सुदर्शन चक्र को निकाला और प्रभु के सामने रख दिया.

अब भगवान श्रीकृष्ण मन ही मन मुस्कुराने लगे. फिर हनुमान जी ने हाथ जोड़ते हुए प्रभु श्रीराम से पूछा कि हे प्रभु! आज आपने माता सीता के स्थान पर किस दासी को इतना सम्मान दे दिया है कि वह आपके साथ माता सीता के सिंहासन पर विराजमान है? हनुमान जी के मुख से ऐसे सुनते ही सत्यभामा का अपने रूप रंग को लेकर जो अहंकार था वो पल भर में ही टूट गया.

अब इन तीनों भक्तों को भगवान की लीला समझ आ गई और तीनों ही अपनी गलती के कारण भगवान के चरण कमलों में झुक गए.

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