अखिलेश से ही नहीं बल्कि सिर्फ जाट वोटों के सहारे जीत हासिल करने से भी हुआ जयंत का मोहभंग

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ABC NEWS:  पांच साल पहले 2019 में इसी फरवरी महीने में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल ने एकसाथ मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला किया था और यूपी की 80 लोकसभा सीटों का बंटवारा किया था. सपा 37, बसपा 38 और रालोद ने 3 सीटों पर चुनाव लड़ा था. गांधी परिवार की दो सीटों (रायबरेली और अमेठी) पर इस गठबंधन ने कोई प्रत्याशी खड़ा नहीं किया था. चुनावों में बसपा को 10 सीटें मिलीं, जबकि सपा को पांच लेकिन रालोद का खाता नहीं खुल सका.

2014 में भी रालोद अध्यक्ष अजित सिंह और उनके बेटे जयंत चौधरी चुनाव हार गए थे. इसलिए छोटे चौधरी यानी अजित सिंह को उम्मीद थी कि 2019 का गठबंधन पिता-पुत्र को ना केवल संसद पहुंचाएगा बल्कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटलैंड पर उनकी पकड़ को और मजबूत करेगा लेकिन ऐसा नहीं हो सका. इसके साथ ही अजित सिंह का वह सपना भी अधूरा रह गया जिसके तहत वह पिता चौधरी चरण सिंह के जाट-मुस्लिम समीकरण को मुजफ्फरनगर दंगों के बाद से पटरी पर लाना चाहते थे. तब अजित ने खुद मुजफ्फरनगर से और बेटे को मथुरा से खींतकर बागपत से चुनावी मैदान में खड़ा कर दिया था.

पित-पुत्र दोनों पुश्तैनी सीट से हारे
हालांकि, पश्चिमी यूपी में जाट वोटरों की मदद से बसपा को फायदा हुआ लेकिन चौधरी परिवार का कोई भी सदस्य संसद नहीं पहुंच सका. जयंत बागपत में 20,000 वोटों से जबकि अजित सिंह 5000 वोटों के अंतर से हार गए. बता दें कि जाट बहुल बागपत सीट चौधरी परिवार की पारंपरिक सीट रही है. 1977 में यहीं से जीतकर चौधरी चरण सिंह देश के गृह मंत्री और फिर प्रधानमंत्री बने थे. वो यहां से 1980 और 1984 में भी चुनाव जीते। इसके बाद अजित सिंह ने यहां राजनीतिक विरासत संभाली थी.

2019 में चुनावी हार से खुली आंखें
बहरहाल, 2019 की चुनावी हार ने पिता-पुत्र दोनों की आंखें खोल दीं लेकिन 2021 में अजित सिंह की कोविड संक्रमण के कारण मौत हो गई. इसके बाद पार्टी की जिम्मेदारी जयंत चौधरी के कंधों पर आ गई. उन्होंने खुद को बड़े संघर्षों के लिए तैयार कर लिया. जब दिल्ली की सीमाओं पर किसानों ने डेरा-डंडा डाला तो जयंत उसमें कूद पड़े और पश्चिमी यूपी में अपने खोए जनाधार को जुटाने में लग गए. इसका लाभ भी जयंत को मिला.

रालोद में आई नई जान
2022 के विधानसभा चुनावों में जयंत चौधरी ने सपा के अखिलेश यादव के साथ समझौता किया और 33 सीटों पर चुनाव लड़ा. किसानों के साथ रिश्ते मजबूत करने का फायदा उन्हें 33 में से सिर्फ आठ सीटों पर जीत के रूप में मिला लेकिन बड़ी बात यह रही कि रालोद 24 सीटों पर दूसरे नंबर पर रही. इनमें से 14 सीटें तो ऐसी थीं कि जहां हार-जीत का अंतर केवल 500 वोटों से भी कम रहा. रालोद के उम्मीदवारों ने बीजेपी के कद्दावर नेता संगीत सोम और राज्य सरकार में गन्ना मंत्री रहे सुरेश राणा को भी हरा दिया.

राइट टर्न का प्वाइंट भी तय
2019 के लोकसभा चुनाव में सूपड़ा साफ होने और 2022 के विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करने के बाद जयंत चौधरी के सामने भविष्य को लेकर बड़ा सवाल खड़ा .था जब से पार्टी का गठन हुआ है, तब से कभी भी 4 फीसदी से ज्यादा वोट उसे नहीं मिल सका है. रालोद को 2022 के विधानसभा चुनावों में 2.85 फीसदी वोट मिले थे, जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में सिर्फ 1.69 फीसदी वोट मिले थे, जबकि पश्चिमी यूपी के 10 लोकसभा सीटों और 40 विधानसभा सीटों पर ना केवल जाटों का दबदबा है बल्कि वहां 12 फीसदी उनके वोट भी हैं.

ऐसे में जयंत को यह बात समझ में आ ही गई कि अगर उस 12 फीसदी वोट बैंक पर कब्जा जमाना है और रालोद को चुनावी इतिहास में आगे लंबी लकीर खींचनी है तो नए प्रयोग करने होंगे. इसके लिए जयंत को सिर्फ जाट वोटों के सहारे ना रहकर नए समीकरणों और गठजोड़ पर भी ध्यान देना होगा. माना जा रहा है कि इसी रणनीति के तहत जयंत ने दो साल पहले सपा की सफल जुगलबंदी का साथ छोड़ने की रणनीति बनाते हुए अब सत्ताधारी (राइट विंग) बीजेपी के हिन्दुत्व रथ पर सवार होने का फैसला किया है. हालांकि, अभी तक जयंत चौधरी की तरफ से सपा से रिश्ते तोड़ने की ऐलान नहीं किया गया है लेकिन मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया जा रहा है कि दोनों के रास्ते जल्द ही अलग होंगे.

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