19 मई को अखंड सौभाग्य का वट सावित्री व्रत, जानें पूजन विधि, शुभ मुहूर्त और कथा

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ABC NEWS: हिन्दू परंपरा में स्त्रियां अपने पति की दीर्घायु और सुखद वैवाहिक जीवन के लिए तमाम व्रत का पालन करती हैं. वट सावित्री व्रत भी सौभाग्य प्राप्ति के लिए एक बड़ा व्रत माना जाता है. यह ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को मनाया जाता है. इस बार वट सावित्री व्रत 19 मई को किया जाएगा. इसके साथ सत्यवान-सावित्री की कथा जुड़ी हुई है, जिसमें सावित्री ने अपनी चतुराई से यमराज को मात देकर सत्यवान के प्राण बचाए थे. इस व्रत को करने से सुखद और सम्पन्न दांपत्यन का वरदान मिलता है.

क्यों होती है वट वृक्ष की पूजा?

वट वृक्ष में ब्रह्मा, विष्णु, महेश त्रिदेवों का वास होता है. बरगद के तने में भगवान विष्णु का वास माना जाता है. जड़ में ब्रह्मदेव का वास माना जाता है. शाखाओं में भगवान शिव का वास होता है. वट की लटकती शाखाओं को सावित्री स्वरूप मानते हैं, इसलिए ये पूरा पेड़ पूजनीय हो जाता है. वट वृक्ष लंबे समय तक अक्षय रहता है, इसलिए इसे ‘अक्षयवट’ भी कहते हैं. यही कारण है कि हिंदू धर्म में इस वृक्ष को पूजनीय माना गया है.

वट वृक्ष की पूजा से लाभ

शास्त्रों में वटवृक्ष की पूजा का विधान बताया गया है. वटवृक्ष की पूजा से सौभाग्य की प्राप्ति होती है. स्थायी धन और सुख-शांति की प्राप्ति होती है. जीवन में खुशहाली और संपन्नता आती है.

शुभ मुहूर्त 

हिंदू पंचांग के अनुसार, वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि को मनाई जाती है. इस बार अमावस्या तिथि की शुरुआत 18 मई को रात 09 बजकर 42 मिनट पर होगी और इसका समापन 19 मई को रात 09 बजकर 22 मिनट पर होगा. उदिया तिथि के चलते वट सावित्री का व्रत 19 मई को रखा जाएगा.

पूजन विधि

सुबह स्नान करके  निर्जल रहकर इस पूजा का संकल्प लें. वट वृक्ष के नीचे सावित्री-सत्यवान और यमराज की मूर्ति स्थापित करें. वट वृक्ष की जड़ में जल डालें, फूल-धूप-और मिष्ठान्न से वट वृक्ष की पूजा करें. कच्चा सूत लेकर वट वृक्ष की परिक्रमा करते जाएं और सूत तने में लपेटते जाएं.  कम से कम 7 बार परिक्रमा करें. हाथ में भीगा चना लेकर सावित्री-सत्यवान की कथा सुनें. फिर भीगा चना, कुछ धन और वस्त्र अपनी सास को देकर उनका आशीर्वाद लें.

कथा 

मद्रदेश में अश्वपति नाम के धर्मात्मा राजा राज्य करते थे. उनकी संतान नहीं थी, लेकिन कुछ समय बाद उन्हें एक कन्या की प्राप्ति हुई. इस तेजस्वी पुत्री का नाम सावित्री पड़ा. विवाह योग्य होने पर सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह किया गया. विवाह के बाद पता चला कि सत्यवान अल्पायु है और एक साल बाद ही उसकी मृत्यु हो जाएगी. लेकिन सावित्री अपने दांपत्य जीवन को लेकर अडिग रही.

नारद जी ने मृत्यु का जो दिन बताया था, उस दिन सावित्री सत्यवान के साथ वन को चली गई. वन में सत्यवान जैसे ही पेड़ पर चढ़ने लगा, उसके सिर में असहनीय पीड़ा होने लगी. वह सावित्री की गोद में अपना सिर रखकर लेट गया. थोड़ी देर बाद सावित्री ने देखा कि अनेक दूतों के साथ हाथ में पाश लिए यमराज खड़े हैं. यमराज सत्यवान के प्राण को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चल दिए. सावित्री को पीछे आते देख यमराज ने कहा, ‘हे पतिपरायणे! जहां तक मनुष्य साथ दे सकता है, तुमने अपने पति का साथ दे दिया. अब तुम लौट जाओ.’

सावित्री ने कहा, ‘जहां तक मेरे पति जाएंगे, वहां तक मैं जाउंगी’ सावित्री की पति भक्ति व निष्ठा देखकर यमराज पिघल गए और उन्होंने सावित्री को एक वर मांगने के लिए कहा. तब सावित्री ने वर मांगा, ‘मैं सत्यवान के पुत्रों की मां बनना चाहती हूं. कृपा कर आप मुझे यह वरदान दें.’ सावित्री से प्रसन्न होकर यमराज ने उन्हें वरदान दे दिया. वरदान देने के बाद जब यमराज फिर से सत्यवान को लेकर जाने लगे तो सावित्री ने कहा कि पति के बिना पुत्रों का वरदान भला कैसे संभव है. सावित्री की यह चतुराई देख यमराज प्रसन्न हो गए और उन्होंने उसके प्राण मुक्त कर दिए और अदृश्य हो गए.’

प्रस्तुति- भूपेंद्र तिवारी

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