ABC NEWS: बजते डमरू, घंट, घड़ियाल और मृदंग… साउंड सिस्टम से निकलती धुनों के बीच जलती चिताएं. फिजाओं में रंग-गुलाल के अलावा उड़ता चिता-भस्म. मोक्षदायिनी काशी नगरी के महाश्मशान हरिश्चंद्र घाट पर कभी चिता की आग ठंडी नहीं पड़ती. चौबीसों घंटे चिताओं के जलने और शवयात्राओं के आने का सिलसिला चलता ही रहता है.
चारों ओर पसरे मातम के बीच साल में एक दिन ऐसा आता है, जब महाश्मशान पर होली खेली जाती है. वे भी रंगों के अलावा चिता की भस्म से. रंगभरी एकादशी पर महाश्मशान पर खेली गई इस अनूठी होली के पीछे प्राचीन मान्यता है कि जब रंगभरी एकादशी के दिन भगवान विश्वनाथ मां पार्वती का गौना कराकर काशी पहुंचे, तो अपने गणों के साथ होली खेली थी.
मगर, अपने प्रिय श्मशान पर बसने वाले भूत, प्रेत, पिशाच और अघोरी के साथ होली नहीं खेल पाए थे. इसीलिए रंगभरी एकादशी से शुरू हुए पंचदिवसीय होली पर्व की अगली कड़ी में विश्वनाथ इनके साथ चिता-भस्म की होली खेलने महाश्मशान पर आते हैं. इसकी शुरूआत हरिश्चंद्र घाट पर महाश्मशान नाथ की आरती से होती है.
भस्म होली से पहले निकाली जाती है शोभायात्रा
इसके पहले बाकायदा शोभायात्रा भी निकाली जाती है. बाबा भोले मां पार्वती का गौना कराने के बाद भूत, प्रेत और अपने गणों के साथ मसान में होली खेलने आते हैं और इसी के बाद से होली की शुरुआत हो जाती है. बाबा की शोभायात्रा वाराणसी के कीनाराम आश्रम से निकालकर महाश्मशान हरिश्चंद्र घाट आती है.
अंतिम सत्य शव है और वही शिव रूप में पूजनीय
इसके बाद महाश्मशान नाथ की पूजा और आरती होती है और से बाबा अपने गणों के साथ चिताभस्म की होली खेलते हैं. काशीवासी पूरे वर्ष भर रंगों की होली खेलने के पहले इस महाश्मसान पर होने वाली चिता भस्म की होली का इंतजार करते हैं. अंतिम सत्य शव है और काशीवासी शव को शिव के रूप में पूजनीय मानते हैं.
इसलिए शिव के साथ होली खेलने के लिए महाश्मशान पर अबीर-गुलाल के साथ ही चिता की राख से बेहतर कुछ और न मानकर काशीवासी महाश्मशान में चिता भस्म की होली खेलने आते हैं. इससे विदेशी सैलानी भी अछूते नहीं है. इस अनोखे नजारे को देखने के लिए विदेशों से भी काफी संख्या में पर्यटक यहां पहुंचते हैं.