हाथ से दूरी, ‘कार’ की सवारी; केसीआर की रैली में क्यों पहुंचे अखिलेश यादव?

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ABC News: 2024 में दिल्ली की दंगल को लेकर सभी पार्टियों ने दांव अजमाने शुरू कर दिए हैं. बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के एक दिन बाद तेलंगाना के सीएम के चंद्रशेखर राव ने विपक्षी पार्टियों की मेगा रैली आयोजित किया है. इस रैली में दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल के साथ सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव भी पहुंचे हैं.

कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा में शामिल नहीं होने वाले अखिलेश यादव के हैदराबाद जाने को लेकर सियासी सरगर्मी तेज हो गई है. अखिलेश यादव पहले भी केसीआर, शरद पवार और ममता बनर्जी को प्रधानमंत्री का उम्मदीवार बता चुके हैं. ऐसे में केसीआर की रैली में अखिलेश यादव क्यों पहुंचे हैं, 3 प्वॉइंट्स में जानते हैं…
तीसरा मोर्चा बनाने की कवायद- अखिलेश यादव मजबूत क्षेत्रीय क्षत्रपों का शुरू से समर्थन करते आ रहे हैं. इनमें ममता बनर्जी, शरद पवार, लालू यादव और केसीआर का नाम प्रमुख हैं. इन नेताओं ने अपने-अपने राज्यों में बीजेपी से कड़ा मुकाबला किया है. तीसरा मोर्चा यानी थर्ड फ्रंट बनाने को लेकर अभी तक किसी भी नेता ने औपचारिक बयान नहीं दिया है. हालांकि, क्षेत्रीय क्षत्रप जिस तरह एकजुट हो रहे हैं, उससे इसकी अटकलें लग रही है. अखिलेश यूपी में एक मोर्चा बनाकर 2022 के चुनाव में बीजेपी को कड़ी टक्कर दे भी चुके हैं.
2. यूपी में सीट शेयरिंग नहीं करना पड़ेगा- केसीआर की पार्टी भारतीय राष्ट्र समिति का आधार वोट तेलंगाना में है. केसीआर अलग तेलंगाना की मांग को लेकर राजनीति की ऊंचाईयों पर पहुंचे हैं. चुनाव आयोग की ओर से केसीआर को एम्बेसडर कार चुनाव चिह्न मिला है.तेलंगाना के अलावा केसीआर का किसी भी राज्य में जनधार नहीं है. अखिलेश जानते हैं कि केसीआर के साथ जाने से उनकी पार्टी को यूपी में सीटें नहीं देनी पड़ेगी.
3. कांग्रेस की कवायद पर पानी फेरना- कांग्रेस ने 30 जनवरी को 16 विपक्षी पार्टियों को राहुल की भारत जोड़ो यात्रा में शामिल होने का न्यौता दिया है. हालांकि केसीआर, अरविंद केजरीवाल और असदुद्दीन ओवैसी को आमंत्रण नहीं भेजा गया है. अखिलेश केसीआर की रैली में जाकर कांग्रेस की विपक्षी एकता की हवा निकालने की कोशिश में है. अखिलेश कई दफे कांग्रेस और बीजेपी के अलावा थर्ड फ्रंट की वकालत कर चुके हैं.
केसीआर कितने मजबूत?
तेलंगाना में लोकसभा की कुल 17 सीटें हैं, जिनमें 9 सीटें अभी केसीआर की पार्टी के पास है. केसीआर की पार्टी ने 2019 में लोकसभा की अधिकांश ग्रामीण सीटों पर जीत दर्ज की थी. केसीआर पिछले 9 सालों से राज्य के मुख्यमंत्री हैं. वे केंद्र की मनमोहन सरकार में भी मंत्री रह चुके हैं. हाल ही में केसीआर ने अपनी पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति का नाम बदलकर भारत राष्ट्र समिति किया था.
कांग्रेस की केसीआर से दूरी क्यों?
2014 से पहले केसीआर कांग्रेस गठबंधन के साथ थे. उन्होंने सोनिया गांधी से वादा किया था कि तेलंगाना राज्य बनने के बाद अपनी पार्टी का विलय कांग्रेस में कर लेंगे. 2013 में कांग्रेस ने लोकसभा में आंध्र प्रदेश का विभाजन कर तेलंगाना राज्य बना दिया. तेलंगाना बनने के बाद केसीआर मुकर गए. इतना ही नहीं, कई मौकों पर उन्होंने सोनिया गांधी और राहुल गांधी पर जमकर हमला भी किया. तेलंगाना में भारत जोड़ो यात्रा के दौरान ही राहुल गांधी ने ऐलान किया था कि केसीआर को साथ नहीं रखा जाएगा.

वहीं, यूपी में 2017 में अखिलेश यादव ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था, लेकिन पार्टी की करारी हार हुई. 403 में से सपा 47 सीटों पर सिमट गई, जबकि कांग्रेस को भी सिर्फ 7 सीटें मिली. अखिलेश यादव इसके बाद कांग्रेस से गठबंधन नहीं करने की घोषणा कर दी. इसकी 2 बड़ी वजह है.
1. कांग्रेस के पास जनाधार नहीं- 2009 के बाद से यूपी में कांग्रेस का जनाधार लगातार कम होता जा रहा है. 2009 चुनाव में कांग्रेस को 21 सीटें और 18.25 फीसदी वोट मिला था. 2014 में पार्टी का वोट पर्सेंट 7.53 फीसदी पर पहुंच गया. इस साल पार्टी को सिर्फ 2 सीटें मिली.
2019 के चुनाव में तो यूपी में कांग्रेस के कई उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई. खुद राहुल गांधी अमेठी से चुनाव हार गए. इस चुनाव में पार्टी का वोट पर्सेंट 6 फीसदी के आसपास आ पहुंचा.
2. सीट की डिमांड ज्यादा- अखिलेश यादव ने एक इंटरव्यू में कहा कि कांग्रेस में नेता ज्यादा हैं, जबकि कार्यकर्ता कम. चुनाव में कांग्रेस सीटों की डिमांड ज्यादा करती है, जबकि पार्टी के पास कोई आधार वोटर्स नहीं है. कांग्रेस से अखिलेश की दूरी की यह दूसरी सबसे बड़ी वजह है. बिहार में बीजेपी से गठबंधन से तोड़ने के बाद नीतीश कुमार ने बयान देते हुए कहा था कि देश में थर्ड फ्रंट की कोई जरूरत नहीं है. कांग्रेस के साथ क्षेत्रीय पार्टियों को जोड़कर एक फ्रंट बनाएंगे. नीतीश ने इस कवायद को पूरा करने के लिए दिल्ली में 6 बड़े नेताओं से मुलाकात भी की. इनमें शरद पवार, सोनिया गांधी, सीताराम येचुरी जैसे दिग्गज शामिल थे. ऐसे में सवाल उठता है कि नीतीश की कवायद के बावजूद अखिलेश इससे दूरी क्यों बना रहे हैं? दरअसल, अखिलेश को डर है कि नीतीश कांग्रेस के सहारे यूपी की पॉलिटिक्स में ओबीसी में पैठ बना सकते हैं. नीतीश जिस कुर्मी जाति से आते हैं, उसकी आबादी यूपी में करीब 5-6 प्रतिशत है. अखिलेश कुर्मी को साधने के लिए प्रदेश अध्यक्ष की कमान पिछले ही महीने नरेश उत्तम पटेल को सौंपी थी. कुर्मी वोटों के बड़े हिस्से पर अभी तक यूपी में बीजेपी का हिस्सा रहा है. कुर्मी समुदाय से आने वाले ज्यादातर बड़े नेता बीजेपी के साथ हैं. अखिलेश की कोशिश की है कि वो इस वोटबैंक में सेंध लगाएं लेकिन वो ये भी नहीं चाहेंगे कि बिहार में ईसीबी और ओबीसी का समीकरण साधकर नीतीश कुमार यूपी में भी उनके सहारे उन्हीं की पार्टी के लिए चुनौती बन जाएं.

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